चूंडावतो के पाटवी ठिकाने के बारे में रोचक तथ्य
मेवाड़ में सलूम्बर की स्थिति:
राजस्थान के दक्षिणी भूभाग -
भीलवाड़ा,
चितोड़, उदयपुर व राजसमन्द जिलों को मेवाड़ के नाम से जाना जाता रहा है.
इस की सीमाएं हमेशा बदलती रही. महाराणा कुम्भा (1433ई.) ओर सांगा (1509ई.)
के काल में इसका सबसे अधिक विस्तार हुआ. महाराणा प्रतापसिंह (1572ई.) ओर
महाराणा अमरसिंह (1597ई.)के काल में कभी ऐसा समय भी आया जब उनके अधीन
चावन्ड के आसपास का छप्पन भोमट का क्षेत्र ही मेवाड़ के रूप में शेष बचा
रहा. मेवाड़ के इसी भाग में, विश्व प्रसिद्ध जयसमंद झील के दक्षिण में
डूंगरपुर राज्य की सीमाओं को छूता हुआ मेवाड़ का प्रमुख ठिकाना ‘सलूम्बर’
स्थापित था. यह मेवाड़ का ऐसा भूभाग रहा जिस पर दुर्दिनो में भी मुगलो का
कभी अधिकार नहीं हुआ.
16वीं
शताब्दी के उतरार्द्ध का यहीं वह समय था जब मेंवाड़ के महाराणाआं के
अधिकार से पहले चितौड़गढ़ फिर कुम्भलगढ़ ओर फिर उदयपुर जा चुका था. तब
महाराणा प्रताप की ईच्छानुसार उनके प्रमुख सामंत बेगू के रावत कृष्णदास
चूंडावत ने सलूम्बर क्षेत्र को राठोड़ों से जीतकर अपनी राजस्थली बनाई जो
भारत स्वतन्त्र होने के पूर्व तक चूंडावत शासकों के अधीन रही. 24.8 उत्तरी
अक्षांश व 74.4 पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित 19200,00 वर्ग मीटर
क्षेत्रफल वाला सलूम्बर नगर, चूंडावत राजपूतों का महत्वपूर्ण व पाटवी
ठिकाना कहलाता था. यहां के शासक को मेवाड़ में उच्च स्थान व विशेषाधिकार
प्राप्त थे. रावत की पदवी से सुशोभित चूंडावत सरदारों की बहादुरी,
निर्भयता, स्वतन्त्रता प्रेम, स्वामीभक्ति अर जूझारू प्रवृति मेवाड़ का
इतिहास रचने में विशेष महत्व रखती है. इस दृष्टि से सलूम्बर मेवाड़ की एक
महत्वपूर्ण स्वतंत्र जागीर थी.
सलूम्बर राजवंश का सम्बन्ध मेवाड़ के राजवंश से:
महाराणा हमीर के बाद उनका ज्येष्ठ पुत्र क्षेत्रसिंह (1364 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा. जो प्रजा में ‘खेता’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ. इसके बाद क्षेत्रसिंह का पुत्र लक्षसिंह (लाखा) 1382 ई. में चितौड़ के राज सिंहासन पर आरूढ़ हुआ. महाराणा लाखा ने सात विवाह किये. जिससे उसके आठ पुत्र चूंडा, राघव (रागोदेव), डूला, अज्जा, डूंगरसिंह, रुदो, भीमसिंह नेहा हुए. महारानी लखमादे खींचन (चोहान) की कोख से ज्येष्ठ पुत्र चूंडा का जन्म हुआ. चूंडा के वंशज चूंडावत कहलाये. पिता की ईच्छापूर्ति के लिए चूंडा ने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने राजगद्दी के अधिकार को त्याग दिया. चूंडा व उसके बाद उसके छः उत्तराधिकारी क्रमशः रावत कांधल, रावत रतनसिंह (प्रथम), रावत दूदा, रावत सांईदास व रावत खेंगार हुए जो बेगू के स्वामी हुए.
चूंडा
की सातवीं पीढ़ी में रावत कृष्णदास हुआ, जिसने 1579 ई. में महाराणा प्रताप
के आदेशानुसार सलूम्बर के भोमिये सिंहा राठोड़ को मारकर सलूम्बर को अपने
अधीन किया1 तथा इसके वंशज कृष्णावत चूंडावत कहलाए. भारत स्वतन्त्र होने तक
कृष्णदास के पाटवी (ज्येष्ठ) वंशज सलूम्बर के भू-अधिपति रहे जिनका क्रमशः
क्रम इस प्रकार है-
रावत
जेतसिंह (प्रथम), मानसिंह, पृथ्वीसिंह, जगन्नाथसिंह, रघुनाथसिंह, रतनसिंह
(द्वितीय), कांधल, केसरीसिंह (प्रथम), कुबेरसिंह, जेतसिंह (द्वितीय),
जोधसिंह (प्रथम), पहाड़सिंह, भीमसिंह, भवानीसिंह, रतनसिंह (तृतीय),
पद्मसिंह, केसरीसिंह (द्वितीय), जोधसिंह, ओनाड़सिंह, खुमाणसिंह.
सलूम्बर
की शाखा में अन्य ठिकाने प्रादुर्भूत हुए - भैंसरोड़गढ़, कुराबड़, भदेसर,
थाणा, बम्बोरा, साटोला, लूणदा आदि सभी ठिकाने कृष्णावतों के रहे. इस तरह
सलूम्बर ठिकाने का शासक मेवाड़ नरेश के बडे़ भाई अर्थात पाटवी वंशज होने के
कारण इस ठिकाने के शासक को मेवाड़ में उच्च बैठक, अधिकार व श्रेणी प्राप्त
थी. राणीमंगा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र होने के बाद भी चूंड़ा मेवाड़ की
गद्दी पर नही बैठा था अतः उसे मांडू सुल्तान महाराणा कहकर संबोधित नही कर
सकता था ओर पिता की मृत्यु के बाद चूंडा का कुंवर कहना अनुचित था अतः
सुल्तान ने चूंडा को रावत की उपाधि देकर सम्मानित किया
1. मेवाड़ राज्य में सलूम्बर रावत का स्थान:
2. सलूम्बर
रावत के पूर्वज चूंडा ने अपने छोटे भाई मोकल के पक्ष में राज्य के
उत्तराधिकार को छोड़ दिया था तब से मेवाड़ राज्य में राज्य गद्दी के
उत्तराधिकारी मोकल के वंशज तथा राज्य प्रबन्ध के अधिकारी चूंडा व उनके वंशज
हुए. चूंडा के वंशज चूंडावत कहलाए. चूंडावतो में सलूम्बर का ठिकाना
‘पाटवी’ माना जाता था.
मेवाड़
के राज्य प्रबन्ध का अधिकार सलूम्बर रावत को प्राप्त था वही ‘भांजगड्या’
(राजपूत अमात्य) कहलाता था. उनकी स्वीकृती या विचार विमर्श के बिना कोई भी
राजनैतिक कार्य नही किया जा सकता था. जैसे- उत्तराधिकारी घोषित करना,
आक्रमण या युद्ध करना, संधि करना आदि
3. रावत कांधल, रावत कृष्णदास, रावत
पहाड़सिंह, रावत कुबेरसिंह आदि के द्वारा इन संदर्भो में किये गये कार्य
उल्लेखनीय है.
2. उत्तराधिकारी घोषित करना:
चूंडा
ने अपने छोटे भाई मोकल को राज्याभिषेक कर सर्वप्रथम नजराना पेश किया, व
तलवार - बांधी, तब से चूंडा के ज्येष्ठ वंशज महाराणा की तलवार बांधने की
रस्म का निर्वाह करते रहे. यह रस्म राज्याभिषेक के बाद एकलिंग जी के मन्दिर
में सम्पन्न होती थी. महाराणा का राजतिलक इन्हीं के हाथों से सम्पन्न होता
था. कालान्तर में उनके इस तलवार बांधने का अधिकार समाप्त कर दिया गया था
तब राजतिलक पुरोहित के हाथ से होने लगा.
4 इसके अतिरिक्त नये महाराणा की
गद्दीनशीनी सलूम्बर रावत की सहमती से होती थी. महाराणा के पुत्र न होने की
स्थिति में किसी को गोद लेने के लिए सलूम्बर रावत की सहमती आवश्यक होती थी.
नये महाराणा को राजगद्दी पर बिठाने व उसका राज्याभिषेक करने के कई उदाहरण
मेवाड़ के इतिहास में उल्लेखित है. जब-जब उत्तराधिकार के बारे में विवाद
हुआ, टकराहटे हुई, मुश्किल आयी तब-तब सलूम्बर के चूंड़ावत रावतो ने अन्य
सामन्तो सरदारों का नेतृत्व कर नये महाराणा को गद्दी पर आसीन किया. 1468 ई.
में महाराणा कुंभा को उसके पुत्र उदा ने मारकर मेवाड़ का स्वामी बन बैठा,
तब उस समय मेवाड़ के सामन्तो का नेतृत्व कर रावत कांधल ने उदयसिंह के छोटे
भाई रायमल को बुलाया ओर उसे मेवाड़ का महाराणा बनाया तथा पितृघाती ऊदा को
मेवाड़ से बाहर खदेड़ दिया.
5 1527
ई. में महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद चूंडा वंश के चोथे रावत दूदा ने
स्वर्गीय महाराणा सांगा की इच्छानुसार रतनसिंह को उत्तराधिकारी बनाकर
चितौड़ का किला सौंपा तथा उसके दूसरे भाईयांे विक्रमादित्य ओर उदयसिंह को
रणथम्बोर का किला प्रदान किया.
6 1531 में महाराणा रतन सिंह व बंूदी के राव
सूरजमल के परस्पर शस्त्राघात से मारे जाने का समाचार पाते ही रावत दूदा
चितोड़ पहुंचा ओर अपने भाई सत्ता व सांईदास को रणथम्बोर भेज विक्रमादित्य
ओर उदयसिंह को बुलाकर विक्रमादित्य को मेवाड़ का महाराणा बनाया. बनवीर
द्वारा महाराणा विक्रमादित्य के मार डालने ओर मेवाड़ की गद्दी हथिया लेने
के षड्यंत्र को विफल कर रावत सांईदास ने मेवाड़ के सामन्तो के साथ मिलकर
महाराणा उदयसिंह का राज्याभिषेक किया तथा चितोड़ से बनवीर को खदेड़ कर
महाराणा का चितौड़ पर अधिकार कराया.
7 वि.स.
1628 (1511 ई.) में महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद महाराणा प्रताप का
छोटा भाई जगमाल पिता का उत्तराधिकारी बनकर राजगद्दी पर बैठ गया तब रावत
कृष्णदास चूंडावत ने सब सामन्तो की सलाह के अनुसार जगमाल को गद्दी से उतार
ज्येष्ठ प्रताप सिंह को गोगुन्दा मुकाम पर मेवाड़ का मालिक बनाया.
(3). युद्ध भूमि में:
8. महाराणा
कुम्भा के समय में रावत कांधल ने युद्ध अभियानांे में सक्रिय भाग लेकर
मेवाड़ की सीमाओ को बढ़ाने में विशेष योगदान दिया. कांधल के नेतृत्व में
हुई लड़ाई में जफर खां’ को मेवाड़ से खदेड़ बाहर निेकालने में सफलता पाई.
9 .
महाराणा के आदेश पर रावत कांधल भानू डाकू को मारकर लड़ता हुआ स्वयं भी काम
आया.
महाराणा
प्रतापसिंह (प्रथम) की मृत्यु पूर्व उनके उदासी में डूबे प्राण देखकर
सलूम्बर रावत जेतसिंह (प्रथम) ने अन्य सरदारो के साथ महाराणा प्रताप के
सामने मेवाड़ के स्वतन्त्रता संग्राम को जारी रखने की शपथ ली ओर महाराणा
अमरसिंह (प्रथम) के साथ रावत जेतसिंह ने अपने वचनानुसार निष्ठापूर्वक
सेवाएं दी. परिणाम स्वरूप महाराणा अमर सिंह ने मुगलों से 17 लड़ाईयां बड़ी
प्रबलता से लड़ी. सलूम्बर रावत मानसिंह की अध्यक्षता में 1603 ई. से 1614
ई. तक मेवाड़ सेनाओ ने युद्ध लड़े.
10. महाराणा अरिसिंह के समय सलूम्बर रावत
पहाड़सिंह ने मराठो के विरुद्ध सैनिक अभियानो व उनसे संधि वार्ताओ में
प्रमुख भूमिका निभायी. अंत में मेवाड़ के लिये मराठांे से युद्ध करता हुआ
अल्पायु में वीरगति को प्राप्त हुआ.11
(4). संधि वार्ताओं मेंः
11. मेवाड़
मुगल संधि वार्ताओ में रावत जेतसिंह (द्वितीय) ने प्रमुख भूमिका निभायी.
मुगल सामा्रज्य विछिन्न हो जाने के बाद रावत केसरीसिंह (प्रथम) ने राजपूत
राजाआंे को एकता के सू़त्र में बांधने का हुरड़ा मुकाम पर पहला प्रयास
किया. रावत कुबेर सिंह ने मेवाड़-जयपुर, मेवाड़-जोधपुर के बीच मनोमालिन्य
की स्थिति को मिटाकर राजपूत एकता का पुनः प्रयास किया था. मेवाड़ मराठा
संधि वार्ताओ में सलूम्बर के रावत कुबेरसिंह व पहाड़सिंह का विशेष योगदान
रहा.
(5). उदयपुर महलों का रक्षा भार:
जब
कोई शत्रु मेवाड़ की राजधानी उदयपुर पर घेरा डालता था तो सलूम्बर रावत
उदयपुर के सूरजपोल दरवाजे पर रक्षक के रूप में उपस्थित रहता था. राजमहलों
के निकट ‘माछला मगरा’ नामक पहाड़ी पर बने एकलिंग गढ़ में निवास करता था.
12 .
1771 ई. में महाराणा अरिसिंह ने रावत भीमसिंह को उदयपुर रक्षार्थ छोड़कर
विद्रोहियो से मुकाबला किया ओर विजय पायी. इसी सन् में महाराणा ने भीमसिंह
को चितोड़ किले पर अधिकार करने के लिये भेजा. किले पर महता सूरतसिंह ने
रत्नसिंह को किले पर नियुक्त कर रखा था. रावत भीमसिंह के आने की खबर सुनकर
सूरतसिंह भाग खड़ा हुआ ओर भीमसिंह ने किले पर कब्जा कर महाराणा का अधिकार
जमाया.
13. 1833
ई. (वि.स.1890) को महाराणा जवानसिंह 10,000 सैनिक साथ लेकर अपने पिता का
श्राद्ध करने गया तीर्थ हेतु गया. तब रावत पद्मसिंह महाराणा की वापसी तक
राजमाता व महलो की रक्षार्थ उदयपुर रहा
14. महाराणा के वापस लोटने पर अपनी
उदयपुर स्थित सलूम्बर की हवेली में स्वागत किया व भेट’ दी.
15. महारणा के
किसी भी कार्यवश राजधानी से बाहर होने की स्थिति में नगर शासन ओर प्रासाद
-रक्षण का उत्तरदायित्व सलूम्बर रावत का होता था. महाराणा के साथ चलते समय
वह महाराणा के दांयी ओर चलता था.
मेवाड़ राज्य में सलूम्बर रावत की प्रतिष्ठाएं:
सलूम्बर
ठिकाना मेवाड़ की महत्वपूर्ण जागीर रही. महाराणा अमरसिंह (प्रथम) के समय
सोलह व बत्तीस सामंतो की श्रेणियां बनाई गई. सलूम्बर रावत को प्रथम श्रेणी व
दरबार में चोथी बैठक प्राप्त हुई. महाराणा की सवारी के समय खवासी के घोडे़
पर बैठता था. इससे पूर्व सलूम्बर रावतो के मूल पूरूष चूंडा के सत्ता त्याग
के बाद कुछ विशेषाधिकार मिले जो कालान्तर तक रस्म - परम्परा के आधार पर
चलते रहे.
1. मेवाड़ के पट्टों पर भाले व सही का अंकन:
चूंडा
ने उत्तराधिकार त्याग के बाद राज्य प्रबन्ध का कार्य अपने हाथांें लिया.
मेवाड़ राज्य की ओर से जारी होने वाले पट्टे, परवानांे व दानपत्र पर चूंडा व
उसके बाद उसके मुख्य (पाटवी) वंशजो की ओर से हस्ताक्षरी चिन्ह रूप मे
‘भाले’ का अंकन किया जाना लगा. तभी वह अनुदान पत्र वैध माना जाता था. चूंडा
को भाला अंकन का अधिकार किससे प्राप्त हुआ यह पूर्ण रूप से ज्ञात न हो
सका. इस बारे मे गोरीशंकर ओझा लिखते है - ‘‘चूंडा की पितृ भक्ति से प्रसन्न
होकर महाराणा ने आज्ञा दी कि अब से राज्य की ओर से पट्टो, परवानो आदि पर
भाले का चिन्ह चूंडा ओर उसके मूख्य वंशधर करेंगे तथा ‘भांजगड़’ (राज्य
प्रबन्ध) का काम उन्हीं की सम्मति से होगा.’’(पृ.-266) वही ‘वीर विनोद’ में
कवि श्यामलदास लिखते है कि ‘‘चूंडा को यह अधिकार महाराणा लाखा की मृत्यु
के बाद राजमाता हंसाबाई ने दिया.’’(पृ.-310)
कालान्तर
में सलूम्बर रावत कभी उदयपुर ओर कभी सलूम्बर रहने लगे थे अतः सहूलियत के
लिये उन्हांेने भाले का चिन्ह बनाने का अधिकार अपनी तरफ से सही वाले को दे
दिया. परावर्ती
काल में एक लोक कहावत प्रचलित हुई ‘भींड़र का भाला ओर सलूम्बर की सही’,
अर्थात्् पट्टे, परवाने आदि मेवाड़ की सनदो पर भींडर वालांे की तरफ से भाले
का अंकन व सलूम्बर वालो की तरफ से सही. यह जनधारणा प्रचलित हुई. चूंकि
भींडर का सामन्त शक्तिसिंह के मुख्य वंशज रहे ओर सलूम्बर रावत चूंड़ा के.
कालान्तर
में दोनो में अपने-अपने अधिकारो को लेकर प्रतिद्वन्दता रहती थी. फलस्वरूप
‘हरावल’ के लिये उंठाले के किले का विजय अभियान महाराणा के द्वारा दोनो
पक्षो को प्रस्तावित किया गया था. इसके बाद भी शक्तावत व चूंडावत मे परस्पर
विरोधी भावना के रहते आपसी लड़ाई-झगड़े व मन मुटाव की स्थितिया बनी रही थी
तब महाराणा ने इनके विरोध को शान्त करने के लिये भाले के साथ शक्तावतो का
चिन्ह त्रिशूल शामिल करवा दिया इससे भाले के स्वरूप में हल्का सा परिवर्तन
हुआ.
2. भांजगड़ का अधिकार:
16. भांजगड़
तत्कालीन समय का प्रचलित एक देशज शब्द है. इसका शब्द विग्रह किया जाये तो
हम पाते है की ‘भांज’ अर्थात् ‘भांजना’ ‘गड़’ यानि फैसला करना-कराना.
भंाजगड़ कार्य से उत्पन्न भांजगडि़ये पद राजपूत अमात्य का पद रहा. चूंड़ा व
उसके मुख्य वंशजांे ने सदैव मेवाड़ की भांजगड़ का कार्य किया. यह उन्हंे
प्राप्त विशेष अधिकार था. भांजगड़ का तात्पर्य राज्य प्रबन्ध से है. चूंडा
के कुशल राज्य प्रबन्ध की सभी इतिहासकारो ने एक मत से प्रशंसा की. रावत
कृष्णदास ओर उसके छोटे भाई गोेविन्ददास में ठिकाने को लिये झगड़ा हुआ. रावत
कृष्णदास ने भांजगड़ का महत्व अधिक समझकर इसे स्वीकार किया व ठिकाना बेगू
गोविन्ददास को दे दिया. इस प्रकार हम देखते है की तत्कालीन समय में भांजगड़
का विशेष महत्व था. इस पद पर रहते सलूम्बर रावत को मेवाड़ राज्य की ओर से
200 रुपये प्रतिदिन भत्ता मिलता था जो संभवतया उसकी जमीयत जो उदयपुर में
रहती थी खर्च के लिए दिया जाता था. मराठांे के उपद्रव काल में चूंड़ावतो व
शक्तावतों के पारस्परिक संघर्ष के परिणामस्वरुप राज्य में अव्यवस्था छा
गई. महाराणा के आदेशो की अवहेला के चलते सलूम्बर रावत का यह वंशानुगत
अधिकार समाप्त कर दिया गया जिसके लिए उसके द्वारा निरतंर संघर्ष के विवरण
मिलते हैं.
मातमपुर्सी व तलवार बंधाई:
17. मेवाड़
से राठोड़ो के उन्मूलन ओर महाराणा कुम्भा की गद्दीनशीनी के बाद मेवाड़ में
शान्ति स्थापित हो जाने पर रावत चूंडा अपने ठिकाने बेंगूअ रहे तथा उनकी छः
पीढ़ी तक के पाटवी वंशज बेगू ठिकाने पर कायम रहे. रावत चूंडा की मृत्यु के
बाद महाराणा कुम्भा ने कुम्भलगढ़ से बेगू जाकर रावत कांधल को तलवार
बंधाई
18. व भेट देकर प्रतिष्ठाएं देकर सम्मानित किया, तब से यह परम्परा बन
गई थी की चूंड़ा के पाटवी वंशजो की मृत्यु ओर नये उत्तराधिकारी की
गद्दीनशीनी के समय महाराणा चूंडावत के ठिकानेे पर जाता ओर मातमपुर्सी की
रस्म उसकी उपस्थिति में पूर्ण होती. दृष्टव्य है कि रावत दूदा के
उत्तराधिकारी व चूंडा के पांचवे रावत सांईदास की तलवार बंदी की रस्म उसके
ठिकाने भेेंसरोड़गढ़ में हुई
19. रावत सांईदास का उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई
खेगार हुआ. जब अकबर ने वि.स.1624 (1567 ई.) में चितोड़ किले का घेराव किया
इससे पूर्व ही रावत सांईदास व अन्य उमरावो ने सलाह कर महाराणा उदयसिंह को
चितोड़ से कुम्भलगढ़ सुरक्षित भेज दिया था. उस समय महाराणा के साथ रावत
सांईदास का छोटा भाई खेगार भी साथ था. अकबर से युद्ध करते हुए रावत सांईदास
ओर उसके पुत्र कुंवर अमरसिंह के वीरगति पाने के बाद महाराणा उदयसिंह ने
उसके उत्तराधिकारी खेगार को उसके ठिकाने भेसरोड़गढ़-बेगू के लिये रवाना
किया
20. ओर वि.स. 1575 (1518 ई.) जेठ सूद 7 रविवार के दिन महाराणा उदयसिंह
ने भेसरोड़गढ़ जाकर रावत खेगार को तलवार बंधाई ओर सब तरह की प्रतिष्ठाएं
दी.
21. इसी तरह चूंडा के तीसरी पुश्त का रावत रतनसिंह हुआ था जिसने रतनसिंह
की खेड़ी बसाई थी. वहां जाकर महाराणा सांगा ने उसे तलवार बंधाकर प्रतिष्ठा
दी
22. चूंड़ा की सातवी पुश्त का रावत कृष्णदास हुआ जो महाराणा प्रताप का
समकालीन रावत था. जिसने राणा प्रताप के आदेशानुसार सलूम्बर को अपने अधीन
किया ओर उसे अपनी राजधानी बनाई. उसके वंशज कृष्णावत कहलायें, तब से सलूम्बर
ठिकाना हमेशा कृष्णावत वंश का पाटवी ठिकाना रहा. मेवाड़ महाराणा हमेशा के
मुताबिक वंश परम्परा का निर्वह्न करते हुए मातमपुर्सी के अवसर पर सलूम्बर
ठिकाने पर आते व नयें उत्तराधिकारी को तलवार बंदी के लिये अपने साथ
स्नेहपूर्वक उदयपुर ले जाकर सब तरह की प्रतिष्ठाएं परम्परा के अनुसार देते
रहे. किन्तु कालान्तर में यह स्नेह ओर सम्मान फीका पड़ने लगा. मेवाड़ की
गद्दी ओर सलूम्बर की गद्दी दोनो ही गोद आये उत्तराधिकारियो से भरने लगी
एतदर्थ उनमें आपसी मन-मुटाव व स्वार्थ की स्थितियां उत्पन्न होने लगी.
चूंड़ा द्वारा पूर्व में किया गया अभूतपूर्व त्याग समय के साथ धूमिल होने
लगा. इस स्थिति ने मेवाड़ व सलूम्बर दोनो का ही अहित किया. इस संदर्भ में
सलूम्बर ठिकाने के 24 वें रावत केसरीसिंह (द्वितीय) का उल्लेख अनिवार्य है,
जिसने कुंवरपने में ही ठिकाने का कार्यभार संभाल लिया था. किन्तु उनके पिता रावत पद्मसिंह ने महाराणा स्वरूपसिंह को अर्जी देकर वापस पुनः सलूम्बर
का स्वामित्व ले लिया. महाराणा के इस कृत्य से नाराज केसरीसिंह अपने
ठिकाने चला आया. महाराणा भी नाराजगी ओर मनमुटाव के चलते रावत पद्मसिंह की
मृत्यु के बाद सलूम्बर ठिकाने नही गया ओर रावत की मातमपुर्सी व तलवार बंदी
की परम्परागत रस्म अदा नही करवाई, अतः रावत केसरीसिंह उम्रभर महाराणा का
विद्रोही बना रहा,
23. ओर 15 वर्षो तक (जीवनभर) बलपूर्वक ठिकाने पर काबीज
रहा.
24. किन्तु रावत केसरीसिंह (द्वितीय) की मृत्यु ऊपरान्त महाराणा
शंभूसिंह 1866 ई. कार्तिक विद 8 वि.स. 1923 सलूम्बर गया व केसरीसिंह के
दत्तक पुत्र जोधसिंह को उदयपुर लाकर वि.स. 1923 मगसर विद 6 सोमवार के दिन
तलवार बंधाकर सब तरह की परम्परानुसार प्रतिष्ठाएं दी
25. सलूम्बर
ठिकाने के रावत को तलवारबंदी के अवसर पर मेवाड़ महाराणाओ द्वारा जो
प्रतिष्ठाएं दी गई उनकी सूची विभिन्न दस्तावेजांे में इस तरह मिलती है -
1. सामन्तो में उच्च बैठक (सरे की बैठक)
2. हाथी व घोड़ा, स्वर्ण आभूषण सहित
3. आभूषण विशेष जिनमें मोतियो की कंठी, कान के मोेती, जडि़त पहुंची मोती चोखड़ा, जडि़त सरशोभा इत्यादि दिये जाते थे.
4. भारी पोशाक
5. स्वर्ण मंडि़त तलवार जो की तलवार बंदी में महाराणा स्वयं रावत की कमर में बांधता था.
इनके अलावा रावत के साथ गये ताजीमी जागीरदारों को भी दुशाला ओर नाहरमुखी (नाहेरी कड़ा) बक्षा जाने के विवरण मिलते है.
सलूम्बर रावत की मुगल दरबार में उपलब्धिया:
महाराणा
अमरसिंह (प्रथम) के समय मुगलों से 17 लड़ाईयां लड़ी गई. इस कारण मेवाड़ को
धन व जन की भारी हानि हुई फलस्वरूप मेवाड़ को मुगलों से संधि करनी पड़ी.
इस संधि की तीसरी शर्त के अनुसार महाराणा को 1000 सवार बादशाही सेवा में
भेजने थे.
सलूम्बर
रावतो में से 12वें रावत रघुनाथ सिंह का बादशाह ओरंगजेब के पास वि.स.
1726 ज्येष्ठ शुक्ल 14(13 जून 1661 ई.) को लाहोर पहुंचने का विवरण मिलता
है. जिसमें आलमगीर (ओरंगजेब) द्वारा उसे एक हजारी जात व तीन सो सवार का
मन्सब तथा एक हजार रूपये की कीमत का जम्धर देने का उल्लेख मिलता है.
26. इसके
बाद रावत केसरीसिंह (प्रथम) 12 वर्ष तक दिल्ली में रहा
27. जहां उसे बादशाह
ओरंगजेब ने खुश होकर पुर, मांड़ल, बदनोर, ओर मन्दसोर के पट्टे दिये जिसे
रावत ने खुशी-खुशी महाराणा जयसिंह को अर्पित कर दिये.
28. ओरंगजेब ने इसके
साथ ही चितोड़ मे त्रिपोलिया बनाने की स्वीकृती भी दी.29 उल्लेखनीय है की
मेवाड़ मुगल संधि की चोथी शर्त के अनुसार चितोड़ तो मेवाड़ को दे दिया गया
था किन्तु उसकी मरम्मत की अनुमति नही दी गई थी. इसके अलावा बड़वा की पोथी
के अनुसार रावत केसरसिंह ओरंगजेब से यह विशेषाज्ञा भी लेकर आया था की
बादशाह की फोेज में जब 500 सवार मेवाड़ के जाये तब उमराव नही जाये. इसके
पीछे यह किंवदन्ती प्रचलित है कि रावत केसरीसिंह ने ओरंगजंब के दरबार में
निहत्थे ही शेर को कुश्ती में अपने हाथांे से चीर कर मार डाला था. उसके इस
पराक्रम से भयभीत होकर ओरंगजेब ने उसे दिल्ली में चाकरी से निजात देकर वापस
भेज दिया था. कहते है विजित केसरीसिंह अपने साथ ऊपरोक्त पट्टो के साथ
काष्ठ की गणगौेर भी लाया था जिसे सलूम्बर में गणगौेर सवारी में बड़ी धूमधाम
से निकाला जाता था. इसके अलावा रावत केसरीसिंह ने हिन्दुओ पर लगने वाला
जजिया कर माफ कराने का उपक्रम भी किया था जिसे पहले तो मान लिया गया था
किन्तु बाद में पुनः लागू कर दिया गया.
उपरोक्त
विवेचन से स्पष्ट होता है कि सलूम्बर का शासक मेवाड़ का प्रथम श्रेणी का
सामंत, प्रधान अमात्य (भांजगड़्या), व सेनापति था. इतिहास गवाह है कि
सलूम्बर शासकांें ने अपनी योग्यता के बल पर मेवाड़ के प्रशासनिक एवं सैनिक
कार्यो का पूरी दक्षता के साथ निर्वह्न किया.
निवेदन - आपके सुझाव अनमोल है, कृपया आपके सुझाव देना व शेयर करना न भूले .
मयूराज सिंह चूंडावत
संदर्भ सूची:
मयूराज सिंह चूंडावत
संदर्भ सूची:
1. सोनी हरदेराम की पीढ़ावली
2. (अ) प्रा.रा.गी., भाग-11, पृष्ठ-85, दोहा-18 (ब) राणीमंगा, पृष्ठ-1
3. भटनागर, पृष्ठ-105
4. वहीं पृष्ठ-101
5. (अ.) ओझा, भाग-1, पृष्ठ-325 (ब.) मज्झमिका, पृष्ठ-265
6. दरक, पृष्ठ-4
7. वहीं
8. (अ.) वीर विनोद,भाग-2, पृष्ठ-145 (ब.) ओझा, भाग-2, पृष्ठ-1192 (स.) दरक, पृष्ठ-6
9. (अ.) ओझा, भाग-2, पृष्ठ-881 (ब.) मज्झमिका, पृष्ठ-262
10. दरक, पृष्ठ-8
11. (अ.) दरक, पृष्ठ-16 (ब.) ओझा, भाग-2, पृष्ठ-885
12. भटनागर, पृष्ठ-105
13. (अ.) वीर विनोद,भाग-2, खण्ड-3, पृष्ठ-1571
(ब.) ओझा, भाग-2, पृष्ठ-659 (स.) दरक, पृष्ठ-17
14. दरक, पृष्ठ-20
15. (अ.) वहीं (ब.) वीर विनोद,भाग-2, खण्ड-3, पृष्ठ-1805
16. महाराणा
अमरसिंह (द्वितीय) के समय शक्तावत सरदारो ने यह मांग रखी थी कि चूंडावतो
की ओर से भाला होता है, तो हमारी तरफ से भी कोई निशान होना चाहिए. महाराणा
की आज्ञा लेकर शक्तावतो ने सही वालो से अंकुश का चिन्ह बनाने को कहा. उस
दिन से भाले के प्रारंभ का कुछ अंश छोड़कर भाले की छड़़ से सटा एंव दाहिनी
ओर झुका हुआ अंकुुश का चिन्ह भी होने लगा (ओझा, भाग-1, पृष्ठ-266)
17. टाॅडकृत राजस्थान में सामंतवाद, सं. डाॅ. देवीलाल पालीवाल, पृष्ठ-45
18. (अ) बड़वा, पृष्ठ-8 (ब) प्रा. रा. गीत, भाग-11, सोरठा 33,34, पृष्ठ-89 (स) मज्झमिका, पृष्ठ-159
19. (अ) बड़वा, पृष्ठ-11 (ब) प्रा. रा. गीत, भाग-11, दोहा-61, पृष्ठ-96 (स) मज्झमिका, पृष्ठ-168
20. दरक, पृष्ठ-5
21. बड़वा, पृष्ठ-11
22. वहीं, पृष्ठ-10
23. (अ). दरक, पृष्ठ-21 (ब). ओझा, भाग-2, पृष्ठ-752
24. (अ). प्रा.रा.गी., भाग-11, दोहा-113, पृष्ठ-124 (ब). मज्झमिका, पृष्ठ-163
25. (अ). राणीमंगा, पृष्ठ-23 (ब). बही नं.-3, पृष्ठ-3
(स). बड़वा, पृष्ठ-27 (द). ओझा, भाग-2, पृष्ठ-1193
26. वीर विनोद, वहीं, पृष्ठ-454
27. (अ). प्रा.रा.गी., भाग-11, दोहा-90, पृष्ठ-110 (ब). मज्झमिका, पृष्ठ-161
28. वहीं
29. (अ). 1 एजेन्सी रिकाॅर्ड, लेटर बुक नं. 11, पृष्ठ-134-137 2 मे. रा. का
2 डाॅ.प्रकाश व्यास, पृष्ठ-224
(ब) 1 कन्सलटेशन, 20 फरवरी 1818, नं. 31
2 मेहता संग्रामसिंह कलेक्शन, हवाला नं. 1038, ओर 1076
3 मे. रा. का इ., डाॅ.प्रकाश व्यास
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Deleteठिकाना : सावा (चुंडावत)
ReplyDeleteजय मेवाड़ सा। जय एकलिंग सा।
ReplyDeleteMewar me 16 umraw the
ReplyDeleteTo kya rawat ki padvi sirf chunda ji or unke patwi ke hi lagta tha yaa sabhi umraw laga sakte the ?
रावत की पदवी खरवड़ राजपूत को भी मिली हुई है कुम्भलगढ मे कही खरवड़ राजपूत की जागीर थी और वहा के जागीरदार को रावत की पदवी मिली हुई थी जेसे चारभुजा के मन्दिर का जीर्णोद्वार करवाने वाले रावत महीपालसिंह खरवड़ ।
Deleteजय एकलिंग जी
ReplyDeleteजय मेवाड़। जय एकलिंग जी री।।🙏
ReplyDeleteत्रण झाला त्रण पूबिया
ReplyDeleteचुण्डावत भंड़ चार
दो शक्ता ,दो राठौड़
सारगदेवोत पंवार
Proud of my vansaj Chundawat.jai mewar.
ReplyDeleteJai ekling.
गोविंद दास सम्बंधी सूचना गलत है। गोविंद दास जी को कभी भी बेगूँ की जागीर नही मिली। गोविंद दास जी को गुठलाई ( वर्तमान अठाना )जागीर मिली थी। उन्के पिता खेन्गार जी की जागीर भी गुठलाई ( अठाना ) ही थी। गोविंद दास जी ही सम्भवतह ज्येष्ठ पुत्र थे। इस विवाद से महाराणा ने कृष्णदास जी को भान्ज्गद का दायित्य दिया।
ReplyDeleteबेगूँ की जागीर उन्के पुत्र मेघ सिंह जी को मिली थी।
एक सूचना गलत होने से पुरा लेख ही संदिग्ध लगने लगा है।
Can you refere any book related to chundawat history . I want to know about their subclans history
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
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ReplyDeleteJai Rajputana ⚔️⚔️⚔️⚔️⚔️
ReplyDeleteJai mewar ⚔️⚔️
मेवाड़ के थाणा ठिकाने का इतिहास हो यो अबगत कररावें।
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