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जानिए कौन था देश का गद्दार

 

जब-जब इतिहास के पन्नों में पृथ्वीराज चौहान के नाम को खंगाला जाता है तब-तब एक नाम और है जो उनके साथ जुड़ता है और वो है 'जयचंद'।

किसी भी धोखेबाज, देशद्रोही या गद्दार के लिए जयचंद का नाम तो मानो मुहावरे की तरह प्रयोग किया जाता है। कहावत भी है कि....जयचंद तुने देश को बर्बाद कर दिया गैरों को लाकर हिंद में आबाद कर दिया।

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जयचंद पर आरोप है कि उसनें गौरी को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने हेतु बुलाया और सैनिक सहायता दी।

  जब हम पृथ्वीराज की हार के कुछ कारणों व उस वक्त उनके साथ गद्दारी करने वाले  कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर नजर डालते है, तो एक चेहरा हमारे सामने आता है वो है जयचंद । जयचन्द कन्नौज साम्राज्य के राजा थे। वो गहरवार राजवंश से थे जो वर्तमान में राठौड़ राजवंश के नाम से जाना जाता है। दरअसल पृथ्वीराज और जयचंद की पुरानी दुश्मनी थी, दोनों के मध्य युद्ध भी हो चुके थे फिर भी पृथ्वीराज द्वारा संयोगिता से शादी के बाद वह जयचंद का दामाद बन चुका था

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पृथ्वीराज चौहान का राजकुमारी संयोगिता का हरण करके कन्नौज से ले जाना राजा जयचंद को कांटे की तरह चुभ रहा था।

उसके दिल में अपमान के तीखे तीर से चुभ रहे थे। वह किसी भी कीमत पर पृथ्वीराज का विनाश चाहता था। भले ही उसे कुछ भी करना पड़े। अपने जासुसों से उसे पता चला की मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज से अपनी पराजय का बदला लेना चाहता है। बस फिर क्या था जयचंद को अपना उल्लू सीधा करने का एक मौका मिल गया ।

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जयचन्द ने गौरी की सहायता करके पृथ्वीराज को समाप्त करने का मन बनाया।

जयचंद अकेले पृथ्वीराज से युद्ध करने का साहस नहीं कर सकता था। उसने सोचा इस तरह पृथ्वीराज भी समाप्त हो जायेगा और दिल्ली का राज्य उसको पुरस्कार सवरूप दे दिया जायेगा। राजा जयचंद के देशद्रोह का परिणाम यह हुआ की जो मुहम्मद गौरी 1191 के तराइन के प्रथम युद्ध   में अपनी हार को भुला नहीं पाया था, वह फिर पृथ्वीराज का मुकाबला करने के षड़यंत्र रचने लगा।

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राजा जयचंद ने दूत भेजकर गौरी को पृथ्वीराज के खिलाफ सैन्य सहायता देने का आश्वासन दिया।

देशद्रोही जयचंद की सहायता पाकर गौरी तुरंत पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए तैयार हो गया। जब पृथ्वीराज को ये सुचना मिली की गौरी एक बार फिर युद्ध की तैयारियों में जुटा हुआ तो उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मुहम्मद गौरी की सेना से मुकाबल करने के लिए पृथ्वीराज के मित्र और राज कवि चंदबरदाई ने अनेक राजपूत राजाओ से सैन्य सहायता का अनुरोध किया परन्तु संयोगिता के हरण के कारण से राजपूत राजा पृथ्वीराज के विरोधी बन चुके थे वे कन्नौज राजा के संकेत पर गौरी के पक्ष में युद्ध करने के लिए तैयार हो गए।

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1192 ई० में एक बार फिर पृथ्वीराज और गौरी की सेना तराइन के क्षेत्र में युद्ध के लिए आमने सामने खड़ी थी।

दोनों और से भीषण युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध में पृथ्वीराज की और से 3 लाख सेनिकों ने भाग लिया था जबकि गौरी के पास एक लाख बीस हजार सैनिक थे। गौरी की सेना की विशेष बात ये थी की उसके पास शक्तिशाली घुड़सवार दस्ता था।







jayachandपृथ्वीराज ने बड़ी ही आक्रामकता से गौरी की सेना पर आक्रमण किया। उस समय राजपूत सेना हाथी के द्वारा सैन्य प्रयोग करती थी । गौरी के घुड़सवारो ने आगे बढकर राजपूत सेना के हाथियों को घेर लिया और उनपर तीर वर्षा शुरू कर दी। घायल हाथी न तो आगे बढ़ पाए और न पीछे बल्कि उन्होंने घबरा कर अपनी ही सेना को रोंदना शुर कर दिया।

 

 

 

 तराइन के द्वितीय युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी यह थी की देशद्रोही जयचंद के संकेत पर राजपूत सैनिक अपने राजपूत भाइयो को मार रहे थे।

दूसरा पृथ्वीराज की सेना अपने क्षत्रिय धर्म के पालन के कारण रात के समय आक्रमण नहीं करती थी (यही नियम महाभारत के युद्ध में भी था) लेकिन तुर्क सैनिक रात को भी आकर्मण करके मारकाट मचा रहे थे। परिणामस्वरूप इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई और उनको तथा राज कवि चंदबरदाई को बंदी बना लिया गया। देशद्रोही जयचंद का इससे भी बुरा हाल हुआ, उसको मार कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया गया।

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पृथ्वीराज की हार से गौरी का दिल्ली, कन्नौज, अजमेर, पंजाब और सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अधिकार हो गया।

भारत मे इस्लामी राज्य स्थापित हो गया। अपने योग्य सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का गवर्नर बना कर गौरी, पृथ्वीराज और चंदबरदाई को युध्बन्धी के रूप में अपने गृह राज्य गौरी की और रवाना हो गया।

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